बहुत भारी मन से वो प्रधानाचार्य के कार्यालय से बाहर निकला | उसे लग भी यही रहा था कि ऐसा ही होगा| लेकिन घर की ज़रूरतों ने विवश कर दिया था | तभी तो वो परिणाम जानते हुए भी एक बार फिर यहाँ तक आया था | बहुत मिन्नतें की उसने प्रधानाचार्य जी से | लेकिन शायद उन्हें अपनी ही रोज़ी-रोटी बचानी मुश्किल हो रही थी | उन्होंने से साफ-साफ कह दिया था विशाल से – “देखो विशाल ! अगर मुझे जरा भी उम्मीद होती तो मैं अवश्य ही गुप्ता जी से बात करता | वो रोज़ मुझ पर दबाव डालते रहते हैं कि बच्चों से फीस वसूली में तेज़ी लायी जाये | जब भी उनके सामने जाता हूँ तो स्कूल के खर्चों का रोना लेकर बैठ जाते हैं |”
निराशा भरे स्वर में विशाल बस इतना ही बोल पाया था – “लेकिन सर, बन्द स्कूल में खर्च कैसा ? जब किसी को वेतन ही नही दिया जा रहा |”
बीच में ही प्रधानाचार्य जी ने अपनी बात रख दी थी – “ये बात तुम मुझे कह सकते हो, लेकिन यही बात मैं गुप्ता जी को नही कह सकता | सरकारी नौकरी तो है नही | सोचो अगर उन्होंने झल्लाकर मुझे भी विद्यालय में आने से मना कर दिया तो मेरा क्या होगा ? तुम्हारी ही तरह मुझ पर भी संकट आन पड़ेगा ना ?’’
विशाल गहरी साँस छोड़ते हुए उठ खड़ा हुआ | प्रधानाचार्य जी उससे नज़रे मिलाने में असुविधा का अनुभव कर रहे थे | दिलासा देने के लिए बोले – “इस लॉकडाउन ने सब कुछ बर्बाद करके रख दिया | ट्रैफिक खुल गया, बाज़ार खुल गया | लेकिन स्कूल ...... खैर तुम ज्यादा परेशान न होना | मैं गुप्ता जी से निवेदन करके गणित और अंग्रेजी की तरह हिन्दी की भी कक्षाएँ ऑनलाइन शुरू कराने की कोशिश करूँगा | कम से कम एक तिहाई तो वेतन मिल ही जाया करेगा |”
विशाल भी जानता था कि जब विज्ञान और सामाजिक अध्ययन जैसे विषयों की कक्षाएँ नही चली अब तक तो हिन्दी की क्या चलेंगी ? कई बार तो लगता था कि गलती गुप्ता जी की भी नही | जब अभिभावक फीस ही देने को तैयार नही तो कैसे सब विषयों की ऑनलाइन कक्षाएँ चले और कैसे सब शिक्षकों को वेतन मिले ?
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थके हुए से क़दमों से वो रिक्शा स्टैंड की तरफ चला जा रहा था | और मन में यही चल रहा था कि अभी से घर जाकर भी क्या करना ? और जाए भी कहाँ ? रोज़ दो-चार जगह काम माँगने जाता भी था लेकिन कहीं काम न मिलना था, न मिला | रोज़ सुमन से वायदा करके घर से निकलता था कि आज तो कुछ न कुछ इन्तजाम करके ही लौटेगा | लेकिन रोज़ मायूसी के साथ ही घर लौटना पड़ता | घर में खाने-पीने के सामान की भी समस्या खड़ी हो गयी थी | सुमन अपने पति की विवशता को अच्छी तरह समझती थी | इस बुरे दौर में उसने कभी न तो कोई फरमाइश की और न कोई कोई शिकायत |
अचानक विचारों का क्रम टूटा | किसी ने आवाज़ लगायी –“बाबू जी, सब्जियाँ लेते जाइये |”
रतनलाल था | रेहडे पर सब्जियाँ बेचता था लेकिन ख्वाब यही कि बेटे को चिलमिलाती धूप और हाड कंपा देने वाली सर्दियों में खुली सडक पर सब्जियाँ न बेचनी पड़े | कुछ बन जाए पढ़-लिखकर | अक्सर आते-जाते विशाल से अपने बच्चे के भविष्य के बारे में बातें किया करता था | उसका बेटा अनुज था भी मेधावी |
विशाल बुझी आवाज़ में बोला- “रतनलाल, क्यों का मजाक उड़ाते हो ? नमक से रोटी खाने को मिल जाए वही बहुत है | इस लॉक डाउन में सब्जी तो बहुत दूर की बात है |”
“आप जैसे पढ़े-लिखे लोग हिम्मत हार जायेंगें तो हम जैसे अनपढ़ लोगों का क्या होगा ?” रतनलाल भी आज दिलासा देने वाले बोल बोल रहा था |”
“कैसे पढ़े-लिखे रतनलाल ? अपने बच्चों तक का तो पेट भर नही पा रहा हूँ | तुम तो रोज पहले की तरह कमा रहे हो |”
“पहले की तरह कहाँ बाबू जी, कई दिनों से बुखार में तप रहा हूँ | डर लगता है कि कहीं कोरोना ने तो नही दबोच लिया | ग्यारह साल का भी नही हुआ अभी बच्चा | इसलिए साथ आना पड़ता है | नहीं तो खड़े होने की क्या ? बैठने की भी हिम्मत नही | पहले कालोनी में अन्दर तक जाकर सब्जियाँ बेचकर आता था | अब तो यहाँ सडक किनारे खड़े रहते हैं | एक तिहाई भी बिक्री नही होती |”
रतनलाल की बात सुनकर विशाल कुछ गम्भीर होकर सोचने लगा | उसने रतनलाल को थोडा अलग जाकर बात करने का इशारा किया | अनुज छोटा बच्चा ज़रूर था लेकिन उसे ऐसे दोनों का अलग जाकर बात करना अज़ीब लग रहा था | थोड़ी देर बाद दोनों वापस रेहडे के पास आये तो उसे अपने पिता के ये शब्द सुनाई दिये –“एक बार फिर सोच लो बाबू जी |”
“सोच लिया, अच्छी तरह सोच लिया |” विशाल ने जवाब दिया था |
“क्या सोच लिया सर ?” अनुज ने विस्मय से पूछा |
“यही कि तुम्हारे पिता जी की तबीयत बहुत ख़राब चल रही है ना , तो अब मैं और तुम सब्जियाँ बेचने अन्दर कालोनी में जायेंगें, और तुम्हारे पिता जी, दवाइयाँ लेकर कुछ दिन आराम करेंगें |” विशाल ने ज़ल्दी-ज़ल्दी से कहा |
इससे पहले कि अनुज कुछ बोलता , विशाल ने रेहडे को थामा और अन्दर कालोनी की तरफ ले चला | जाते-जाते उसने एक बार फिर रतनलाल को निश्चिन्त होकर घर जाने का इशारा किया |
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शाम होने को आई थी | दोनों एक बड़े से आलीशान मकान के सामने खड़े थे | काफी सब्जियाँ बिक चुकी थी | अनुज छोटा ही था लेकिन आज उसने दिन भर अपने उस शिक्षक के चेहरे के भाव पढने की कोशिश की थी जो उसे किताब पढाया करता था | अन्तत: नन्हे से मुख से एक मासूम सी बात निकल ही पड़ी- “पिता जी ने आपको मेरे साथ भेजकर अच्छा नही किया | इस कालोनी के बहुत से लोग आपको जानते हैं | आपको तो शर्म लग रही होगी सब्जी बेचते हुए |”
विशाल की आवाज़ में अब वो सुबह वाली उदासी नही बल्कि ख़ुशी छलक रही थी – “शर्म कैसी बेटा ? पेट की भूख किसी भी शर्म से ज्यादा महत्व की होती है | और रही तुम्हारे पिता जी की बात उन्होंने कुछ बुरा नही किया | बल्कि अहसान किया है मुझ पर | आज की जो भी बचत होगी सब्जी बेचकर उसका कुछ हिस्सा मुझे भी मिलेगा |तो है न अहसान की बात ?”
अनुज ने हाँ में सिर हिला दिया |
“अच्छा मुझे बहुत प्यास लगी है, सडक के उस पार नल है | मैं पानी पीकर आता हूँ | फिर घर चलेंगें |” इतना कहकर विशाल नल की तरफ चल दिया |
विशाल जब पानी पीकर वापस पलटा तो उसने किसी महिला को रेहडे के पास से मकान के अन्दर जाते हुए देखा | पास आकर विशाल ने पूछा –“ये मैडम, बिना सब्जी लिए ही वापस चली गयी ?”
“कामवाली बाई थी, सब्जियाँ के भाव पूछ रही थी | यह कहकर गयी है कि मालकिन से पूछकर आती हूँ कि क्या-क्या लेना है |” अनुज ने बताया |
कुछ देर तो दोनों ने उसका इन्तजार किया फिर घर की और चल पड़े | पता नही क्यों विशाल को लगा कि कोई पीछे से झाँककर उन्हें देख रहा है |
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आज जब विशाल घर पहुँचा तो बड़ा खुश था | उसे इस बात का सन्तोष था कि आज महीनों बाद घर में अच्छा खाना बनेगा जैसा कभी इस भयावह लॉक डाउन से पहले बनता था |
दरवाज़ा सुमन ने खोला | दोनों बच्चे ख़ुशी से चिल्लाते हुए पिता से लिपट गये | उसने सामान का थैला सुमन को दिया और बच्चों के साथ खेलने लगा |
“पहले सब हाथ-मुँह धोकर खाना खा लो | बाद में खेलना |” सुमन ने अपने परिवार को आदेश दिया |
बच्चे आज अच्छा खाना पाकर बहुत खुश थे | विशाल भी अपना मनपसन्द खाना कहकर खुश था | लेकिन उसे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि खाने में अधिकतर चीज़े वें थीं जो वह लेकर ही नही आया था | अचानक जैसे उसे कुछ याद आया –“सुमन, आज मैंने तुम्हारे जैसी दिखने वाली एक महिला को एक मकान के अन्दर जाते हुए देखा | एक पल को ऐसा लगा कि जैसे तुम ही हो |”
“अच्छा, तो अब दिनभर महिलाओं को देखते फिरते हो ?” सुमन ने मुस्कुराकर पैनी निगाहों से उसे देखा |
“अरे, नही नही पगली, वो तो कोई काम वाली बाई थी |” विशाल सकपका कर बोला |
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रात को बच्चों के सो जाने के बाद सुमन विशाल के बालों में उंगलियाँ फिराते हुए बोली –“विशाल, वो कामवाली बाई मैं ही थी |”
विशाल को जैसे बिजली का झटका लगा हो | कुछ ही पलों में उसके चेहरे पर हीनता और अपराध बोध के भाव आ गये | बोलने में कुछ देर लगी –“क्या ज़रूरत थी किसी के घर में काम करने की ?”
सुमन स्नेह भरी दृष्टि से विशाल को देखती रही और बोली – “और तुम्हें क्या ज़रूरत थी वो सब करने की जो तुमने आज किया ?”
विशाल अचम्भे से बोला – “मतलब?”
“मैं दोबारा आई थी सब्जियाँ खरीदने ....., सब्जियाँ तो नही खरीदी .......... लेकिन तुम्हें दूर तक देखती रही उस बच्चे के साथ जाते हुए ..............” सुमन विशाल को उसी स्नेहिल भाव से देखते हुए बोली |
..... विशाल उसे निहारता रहा .....आगे दोनों में से कोई कुछ न बोल सका | शायद शब्दों की ज़रूरत ही नही थी इससे आगे बात करने के लिए ....
- जय कुमार